खुदा की अमानत

 समंदर कहां तक, हमें अब उछाले

नहीं कोई तिनका जो आकर बचा ले


मुझे कर दिया तीरगी के हवाले

मुबारक तुम्हें आज सारे उजाले


नहीं जिंदगी पर कोई जोर अपना

खुदा की अमानत कभी भी बुला ले


मिलें चार कांधे, घड़ी आखिरी हो

तअल्लुक ज़माने से इतना बना ले


यही आरज़ू आज तक है अधूरी

कभी रूठ जाऊं मुझे वह मना ले


ज़माना हमेशा यह बेहतर लगेगा

निगाहें जो खुद के गिरेबां पे डाले


पतंगे यहां प्यार की कम नहीं है

कभी मैं उड़ा लूं, कभी तू उड़ा ले

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